शुक्रवार, 9 जनवरी 2009

मानस की पीडा-भाग 3.दुविधा मे दशरथ

मानस की पीडा तृत्तीय भाग मे दशरथ के मन मे कैकेयी द्वारा राम-वनवास का वर मांगने पर दुविधा का वर्णन है वो श्री राम के लिए सबकुछ त्यागने को तैयार है और श्री राम को कूट्नीति भीसिखाना चहते है परन्तु वन भेजने के पक्ष मे नही है

दुविधा मे दशरथ



सारे महलो मे कितने खुश
पाये जो थे सब अनुपम सुख
शिक्षा दीक्षा सब हुई पूरी
इच्छा नही रही थी अधूरी
चारो ही सुत थे ब्याहे गये
दशरथ के सपने पूरे हुए
कितनी प्यारी बहुएँ उनकी
भोली है कितनी ही मन की
गर्वित कितना राजा दशरथ
जिसके चारो ऐसे थे सुत
एक से बढकर गुणी एक
और सबमे ही था विवेक
सामने था भविश्य का आइना
और दशरथ का यह कहना
अब मुझमे शक्ति हुई कम
बूढी हड्डियो मे नही दम
जिसमे हो अवध राज्य का भला
अब वही फैसला मै लेने चला
यह सोच के गुरु को बुल्वाया
दशरथ ने गुरु को बतलाया
अब राम ही राज्य सँभालेगा
वही अवध का अब राजा बनेगा
मै और नही कर सकता काम
मुझको भी चाहिये अब आराम
जितनी जल्दी हो शुभ मुहूर्त
देखूँ राम मे राजा की सूरत
खुश होगी अवध की भी परजा
मेरे सिर से उतरेगा कर्जा
शुभ मुहूर्त भी निकलवाया
अगला दिन शुभ यह बतलाया
पर गुरु तो डर गया था मन मे
क्यो राम दिखा मुझको वन मे
मन ही मन वह था समझ गया
पर राजा से कुछ नही कहा
होगा वही, जो ईश्वर इच्छा
इसमे नही किसी का बस चलता
पर कितना खुश था दशरथ
अति उत्तम जो शुभ है मुहूर्त
परजा को भी था कहलवाया
रानियो को भी जा बतलाया
तीनो रानी कितनी प्रसन्न
दे रही दुआएँ मन ही मन
नही किसी के मन मे कोई प्रश्न
खुश था अवध का हर एक जन
सबसे ज्यादा खुश केकैई
दासियो को रत्न लुटा रही
अब अवध का राजा होगा राम
सीता बैठेगी उसके वाम
जोडी कितनी है यह प्यारी
सारी दुनिया से यह न्यारी
पर जब देखी दासी मन्थरा
देखा उसका चेहरा उतरा
केकैई यह नही सब सह पाई
पूछे बिन भी नही रह पाई
बोली! यहाँ आओ मेरे पास
क्यो फिरती हो इतनी उदास?
मन्थरा ने अब मुँह फेरा
कुबुद्धि ने उसको था घेरा
तुम्हे क्या चाहिये मुझसे बोलो
और अब तुम अपना मुँह खोलो
ऐसे न मुँह फुलाये रहो
सब खुश है तुम भी खुश रहो
सब होन्गे खुश , इस महल मे
पर मै नही हुँ खुश दिल मे
तुमको नही बेशक कोई गिला
पर मै चाहती हूँ तेरा भला
रोक दो तुम यह राज्याभिषेक
नही तो पश्ताओगी दिन एक
चुप रहो तुम यह क्या कहती हो?
मन ही मन जलती रहती हो
नही करो कोइ ऐसी बात अशुभ
कोइ सुनेगा , मन मे होगा दुख
तुम दासी की बात क्यो मानोगी?
बनोगी दासी , तब जानोगी
राम बनेगा जो राजा
कौशल्या होगी राज माता
तुम बस दासी बन जाओगी
फिर रोयोगी और पश्ताओगी
केकैई की थोडी बुद्धि फिरी
और दुर्भावना मे वह घिरी
मन्थरा फिर से बतियाने लगी
उसको वह राज बताने लगी
दशरथ ने दिये थे तुम्हे वचन
माँगना जब तेरा चाहे मन
उसके लिये अब अवसर अच्छा
और राजा है प्रण का सच्चा
वह वचन से कभी न भागेगा
बेशक उसको कुछ दुख होगा
यूँ कह के मन्थरा चली गई
केकैई की बुद्धि मारी गई
उसको न सूझी कोई और बात
यूँ सोचते ही हो गई रात
जा के बैठी वह कोप भवन
कोई न समझ पाया कारन
सोचा किसी बात से हुई नाराज़
कुछ मनवाना चाहती है आज
यही तो वह करती थी हर बार
कुछ चाहती तो हो जाती नराज़
यह देख के हँसती थी कौशल्या
उसने ऐसा ही स्वभाव पाया
आज भी कुछ चाहती होगी
तभी कोप भवन बैठी होगी
दशरथ गये थे हर बार की तरह
बैठी थी वह गुस्से मे जहा
राजा जाके यूँ मनाने लगा
केकैई को गुस्सा आने लगा
दिए थे तुमने दो मुझे वचन
आज् उस माँगने का मेरा मन
भरत राजा यह पहला वचन
और दूसरा राम को भेजो वन
वन मे रहेगा वह चौदह साल
छोडे राजा बनने का ख्याल
राजा ने तो मज़ाक समझा
और प्यार से केकैई से बोला
क्यो कर रही हो तुम ऐसे हँसी
तेरी जान तो राम मे ही है बसी
जब देखा आँखो मे शत्रुपन
राजा का दहल गया था मन
खुद पे विश्वास भी नही हुआ
यह उससे रानी ने क्या कहा?
ऐसे समय मे यह क्या मान्गा?
जब राम बनने वाला राजा
यह सोच के गिर गया था दशरथ
कैसे भेजूँ राम को वन के पथ?
राजा भरत , नही कोई हरज
पर दूसरा कैसा है वर ?
क्यो राम बने अब वनवासी
जग मे होगी कितनी ही हँसी
क्यो केकैई यह सब गई भूल
उसकी बुद्धि पर पडी धूल
क्या कर रही है? यह नही जानती
कोई बात भी तो अब नही मानती
कितना केकैई को समझाया
पर उसकी समझ मे नही आया
अपनी ही बात पे अडी रही
बर्बादी की राह पे खडी रही
दशरथ के मन मे बडी दुविधा
कहने मे नही हो रही सुविधा
वह क्या करे? और क्या न करे?
रहे जिन्दा या जीते जी ही मरे
राम तो उसका जीवन है
क्या उसके भाग्य मे वन है?
नही भेजूँ तो जायेगा कुल का मान
भेजूँ तो जायेगी मेरी जान
पर राम से बडा न कोइ मान
सह लूँगा मै यह भी अपमान
पर राम को वन न भेजूँगा
ऐसा प्रण न पूरा करूँगा
रघुकुल रीति भी जायेगी
मर्यादा नही रह पाएगी
होना पडेगा मुझे शर्मिन्दा
नही ऐसे मे रह पाऊँगा जिन्दा
मर जाऊँ मुझे कोइ नही परवाह
नही राम को भेजूँगा वन की राह
पर इससे नही कोइ हित होगा
प्रण तोडना भी अनुचित होगा
पूरे कुल को बदनाम करूँ
मै तो दोनो ही तरफ मरूँ
नही राम वियोग भी जर सकता
कुल को बदनाम न कर सकता
समझ सोच सारी खोई
आज राजा की आँखे रोई
जीवन भर नही झुका था जो
आज जमी पर पडा था वो
बेसुध होकर गिरा हुआ
और दुविधा मे घिरा हुआ
नही सोच सका वह हित की बात
ऐसे ही बीत गई थी रात
श्री राम को अब था बुलवाया
रानी का प्रण भी बतलाया
तुम्हे कहता है यह पिता तेरा
तुम आज विरोध करो मेरा
तेरे साथ रहेगी सब सेना
मुझे राज्य से बाहर कर देना
पर नही जाना यूँ तुम वन
बिताना यहाँ पे सुखी जीवन
किसी की आज्ञा नही जरूरी
मानना भी नही तेरी मजबूरी
मै तुमको आज बताता हूँ
तुम्हे कूटनीति सिखलाता हूँ
यह परजा को जाकर कहदो
और अपने पिता का विरोध कर दो
मै यह सब तो सह जाऊँगा
पर, बिन देखे तुम्हे मर जाऊँगा
तुम्ही मे बसती है मेरी जान
तुम ही तो मेरे हो अरमान
तुम बिन जिन्दा न रहूँगा मै
सारे अपमान सहूँगा मै
नही,नही ऐसा नही बोलो आप
नही कुल का बन सकता मै श्राप
नही कहो ऐसा करने को पाप्
जो कुल के लिये बने अभिशाप
नही सीखनी मुझे कूट्नीति
मै तो जानता रघुकुल रीति
मै अपनी जान भी दे सकता
नही माँ को रुसवा कर सकता
माँ की आज्ञा तो सर्वोत्तम
यही तो मेरा भाग्य उत्तम
मै माँ की आज्ञा मानूँगा
और अब जा के वन मे रहूँगा
मुझे जरा भी मन मे नही मलाल
नही करो अपना ऐसे बुरा हाल
इससे बडा क्या उत्तम भाग्य
माँ से बढकर मुझे नही राज्य
नही टूटने दूँगा आपका वचन
बिना सोचे अब जाऊँगा वन
नही रखो कोइ मन मे दुविधा
और खुशी से मुझको करो विदा
यूँ कह के राम ने ठान लिया
वन मे रहने का वचन दिया
श्री राम ने खत्म कर दी दुविधा
पर राजा को नही हुई सुविधा
रोते हुए पिता को छोड गए
श्री राम तो वहाँ से चले गए
साथ मे ले के सिया औ लखन
श्री राम तो चले गए थे वन
पर हुआ था पिता-सुत का वियोग
क्या बुरा बना था वह सन्योग
राजा दशरथ नही जी पाए
कुछ दिन मे ही प्राण त्याग दिए
बस राम राम श्री राम राम
अन्तिम समय मे बस यही नाम
कितने ही दिल मे दर्द लिए
राजा ने अपने प्राण दिए


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