सोमवार, 23 फ़रवरी 2009

मानस की पीडा -भाग 7.भरत विलाप

मानस की पीडा

भाग 7.भरत विलाप

श्री राम जय राम जय जय राम
मन मे केवल श्री राम का नाम
अब था भरत नाना क घर
पर हर क्षण बसा राम अन्दर
शत्रुघन भी था भरत के साथ
अब कर रहे थे आपस मे बात्
जाने क्यो व्यकुल हो रहा मन
वहाँ खुश हो भैया राम लखन
आँखो मे आँसु भी आ रहे
दोनो ही दुखित हुए जा रहे
मन मे बेचैनी समा रही
पर समझ नही कुछ आ रही
समा रही मन मे भावुकता
और घर जाने की उत्सुकता
अब नही रहेन्गे नाना के यहाँ
कल ही जाएँगे अयोध्या
निकल पडे अगले ही दिन
भारी प्ड रहा था हर पल छिन
कुछ शकुन नही अच्छे हो रहे
दोनो ही यह थे कह रहे
किसी तरह से पहुँचे दोनो अवध
मन मे विचारो का चल रहा युद्ध
दोनो को अवध लगा सूना
लगा जैसे नही यह देश अपना
बस सन्नटा ही पसरा था
नही रोशन कोई घर था
न वहाँ पे थी कोई चहल-पहल
यह देख के मन भी गया दहल
रहे लोग भरत से मुँह फेर
समझने मे न लगी कोई देर
लोगो का उससे यूँ हटना
हुई अवश्य कोई दुर्घटना
पर क्या यह नही समझ पाए
जलदी से राज महल आए
जैसे ही उनके कदम पडे
दशरथ ने अपने प्राण छोडे
नही पिता से हो पाई थी बात
दिल पर लगा था ऐसा आघात
कुछ देर ही पहले पहुँच जाते
तो पिता से बाते कर पाते
जिस पिता ने चलना सिखलाया
वही अब दुनिया मे नही रहा
जो गोदि बिठा के खिलाता था
वही मृत्यु की छैया पे लेटा था
दोनो भाई गिरे बेसुध हो के
आँसु न रुकते थे रोके
पकडे हुए थे पिता के चरण
पिता की बाते कर रहे स्मरण
पर कहाँ है भैया लखन राम
जब विधाता भी हुआ वाम
क्यो नही दिख रहे दोनो भाई
अब भरत के मन मे यह आई
माताओ से बोले ! हे मैया
कहाँ है राम लखन भैया
सीता भाबी भी नही यहाँ
कही बाहर गए है तीनो क्या?
जलदी से उनको बुलवा ले
और यह सन्देश भी भिजवा दे
अब नही रहे है हमारे पिता
आपिस आएँ राम लखन सीता
सुमित्रा कौशल्या नही बोली
दुख से जुबान भी नही खोली
और अब बोली थी भरत की माँ
तुम ध्यान से मेरा सुनो कहना
राम को मैने वन भेजा
तुम बनोगे अयोध्या के राजा
तेरा रसता है साफ किया
और तेरे साथ इन्साफ किया
सिया लखन गए है स्वेच्छा से
नही गए है मेरी इच्छा से
मैने तो राम के लिए कहा
उसे चौदह वर्ष वनवास दिया
राम न तेरी बने बाधा
इसलिए था यह निर्णय साधा
नगर मे भी वह नही रहेगा
राजा बनने को नही कहेगा
अब साफ है तेरा हर रसता
बेशक नही था सौदा ससता
पति खो दिया इसका दुख है
पर सुत राजा अनुपम सुख है
कुछ पाने के लिए खोना पडता
पर भविश्य मे नही रोना पडता
अब मन मे नही रखो कोई दुख
राजा बन राज्य का भोगो सुख
बस्,बस माँ भरत था चिल्लया
तेरे मन मे जरा भी नही आया
तूने कितना बडा कर दिया पाप
बोलो क्या करना है मुझको राज
तुम राज्य की केवल थी भूखी
क्या सुहागिन हो कर नही थी सुखी
तुममे नही जरा सी भी ममता
क्या ऐसी होती है माता
अब तुम ही जा राज्य करना
पर मुझको सुत अब नही कहना
क्या ऐसी है जननी मेरी?
मै नही समझा सच्चाई तेरी
वो प्यार था तेरा बस झूठा
जिसने मेरा सबकुछ लूटा
अरे ! राम तो मेरी जिन्दगी है
वही तो मेरी बन्दगी है
नही चाहिए मुझे कुछ राम के बिना
उसके बिना क्या जीवन जीना
तुम नही समझी क्या है श्री राम
तुम्हे तो बस राज्य से काम
आज मुझ सा नही कोई अभागा
जिसके माथे पे कलन्क लागा
राज्य के लिए भाई को भेजा वन
नही तुझमे है इक माँ का मन
अपने सुत पे ही लगाया कलन्क
मुझसा नही कोई दुनिया मे रन्क
दुख है मुझे तुमने जन्म दिया
लज्जित हूँ क्या उपहार दिया
अब किसी को मुँह न दिखा सकता
नही पिता को वापिस ला सकता
कैसे होन्गे दोने भाई
क्या करती होगी सिया भाबी
वह तीनो ही सोचते होन्गे
दोषी ही मुझे कहते होन्गे
लालची ही मुझे वे समझेन्गे
मुझे कभी क्षमा भी नही करेन्गे
मुझसे तोडेगे हर नाता
कैसी है मेरी यह माता
उस भाई से दूर किया मुझको
इश्वर समझे हर कोई जिसको
कोटि राज्य कुर्बान वहाँ
श्री राम सा भाई हो जहाँ
पर मेरा भाग्य कितना क्रूर
वही भाई मुझसे हुआ दूर
तुम जननी यह नाता अपना
पर नही देखो सुत का सपना
तेरे सामने नही आऊँगा
तुम्हे अपना मुँह न दिखाऊँगा
मुझको अब पुत्र नही कहना
अच्छा यही मुझसे दूर रहना
जननी तुम कुछ नही कह सकता
किया भाई को दूर नही सह सकता
ऐसे विलाप कर रहा भरत
खुद से भी होने लगी नफरत
मुझे जीने का अधिकार नही
बिन राम क रहना स्वीकार नही
गिरा भरत राम की माँ के पास
बोला माँ ! मुझपे करो विश्वास
मुझे नही राज्य का लालच माँ
नही कह सकता मुझे करो क्षमा
नही केवल दूर हुआ बेटा
मेरे कारण ही तुम हुई विधवा
आज तो मै हो गया अनाथ
न माँ न पिता कोई भी साथ
तुमसे क्या कहुँ हे मँझली माँ
तेरे जैसी कोई माँ कहाँ
क्यो नही दिया तुमने मुझे जन्म
कितना भाग्यशाली है लखन
खुशी से सुत को दिया भेज
जहा पर है बिछी काँटो की सेज
ौसके लिए तो अवसर अच्छा
श्री राम का वही सेवक सच्चा
मै तो जीते ई मर गया
न वन का न घर का ही रहा
भाई औ पिता का छूटा साथ
मै तो आज हो गया अनाथ
जो मै ननिहाल नही जाता
ऐसा न करती यह माता
न खोते हम पिता का साया
रहती भाई की भी छाया
सब गलती ही थी मेरी
बुद्धि ही फेरी गई मेरी
मै ही था भाई को छोड चला
उसी का ही फल मुझे आज मिला
कभी नही बिछुडे चारो भाई
पर कैसी अब आँधी आई
इक दूजे के बिना जो नही जिए
वही भाई आज है बिछुड गए
अब केकैई को आई सुध
और खो दी उसने सुध्-बुध
गिर गई वहाँ हो के बेहोश
और खत्म हो गया सारा जोश
फिर नही किसी से वह बोली
सुत ने उसकी आँखे खोली
पर बीता वक्त नही आता हाथ
बस रह जाता है पश्चाताप

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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

मानस की पीडा - भाग6.वन गमन

मानस की पीडा

भाग6.वन गमन

सिया राम के साथ लखन
तैयार है अब जाने को वन
होना था आज राज्याभिषेक
खुश भी था अवधवासी हर एक
पर हुई थी यह अनहोनी बात
छा गई थी जैसे काली रात
राजा नही बनेन्गे अब श्री राम
और छोड जाएँगे अवध धाम
हर अवधवासी था सोच रहा
नही किसी को कोई होश रहा
सबकी आँखे थी भरी हुई
किसी अनहोनी से डरी हुई
बस सन्नाटा था फैला हुआ
नही कोई भी मुख था खिला हुआ
सबके ही मन मे थी हलचल
पर राम का वचन तो था अटल
रोक रही जनता उनको
हमे छोड नही जाओ वन को
सारी जनता तेरी सेना
चाहो जो तुम विरोध करना
हम तेरे लिए मिट जाएँगे
और तुमको ही राजा बनाएँगे
नही , नही ऐसा नही सोचना कभी
मुझको ऐसे नही रोकना कभी
करता माँ का आज्ञा पालन
धन्य है उस सुत का जीवन
मेरा जीवन भी सफल तभी
पूरा करूँगा मै वचन जभी
नही लाना ऐसा विचार
भारत का नही यह सभ्याचार
माता-पिता तो सबसे बढकर
वही तो दिखलाते है हमे डगर
सब कुछ तो सिखलाती है माँ
बनकर के बच्चो की छाया
पिता ही तो चलना सिखलाता
जब पहला कदम भी नही आता
माँ ही तो है पहली ईष्वर
उसके बिना तो जीवन नश्वर
वह माता-पिता है पूजनीय
हर पल है वे तो वँदनीय
माता -पिता की उत्तम वाणी
यह बात सदा जानी मानी
उसे बिना विचारे मान ही लो
शुभ होगा सदा यह जान ही लो
चुप हो गए सारे अवध के जन
पर राम जाएँ , नही मानता मन
अति उत्तम ! हम जाएँगे साथ
हम भी भोगेगे यह वनवास
हम भी अब वन मे जाएँगे
वही पर हम अवध बनाएँगे
तुम ही होगे वन के राजा
और हम होन्गे तेरी परजा
तुमको न अकेला छोडेगे
बेशक हम भूखे रह लेन्गे
पहनेगे हम वल्कल तन पे
नही करेन्गे कोई इच्छा मन मे
हम पर भी तो करो विश्वास
नाखुन से अलग न होगा माँस
मछली न रहे ज्यो बिना नीर
वैसे ही तुम सबकी तकदीर
तुम बसते हो हर धडकन मे
तुमको ही पाना जीवन मे
बस यही इक इच्छा है मन मे
और तुम्ही चले हो अब वन मे
हमको अब तुम रोकना नही
साथ जाने से भी टोकना नही
हम नही रहेन्गे अवध तुम बिन
सूना ही लगेगा यह हर छिन
खडे मार्ग मे जैसे पत्थर
श्री राम के पास नही उत्तर
सीता सन्ग श्री राम लखन
रथ पर जा रहे थे वन
था जैसे ही रथ बढा आगे
सारे ही जन पीछे भागे
आँखो मे बस अश्रु बहते
और मुख से राम राम कहते
जा रहे थे वे पीछे रथ के
जाते नन्दन जहा दशरथ के
जा पहुँचे थे इक वन मे
श्री राम ने सोचा अब मन मे
यह नही उत्तम वे साथ चले
अपना वह घर वीरान करे
जहा बूढी माँ बच्चे छोटे
यही उचित है वे घर को लौटे
श्री राम ने माया फैलाई
सबको ही नीद गहरी आई
वे छोड चले उन्हे सोते हुए
सारथी जा रहा था रोते हुए
दूर वनो को चले गए
और सारथी से शब्द कहे
जाकर सबको समझा देना
और यह भी तुम बतला देना
वनवास काट हम आएँगे
तब सबसे हम मिल पाएँगे
कोई भी पीछे नही आए
उत्तम यही वे घर को जाएँ
सीता सहित श्री राम लखन
पहुँच गए थे सघन वन
वहाँ चौदह वर्ष बिताएँगे
तब ही घर वापिस आएँगे

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