tag:blogger.com,1999:blog-34927796597086463602024-03-05T14:08:34.183-08:00मानस की पीडाश्री रामचरित मानस एक ऐसा पावन ग्रन्थ है , जिसका एक -एक शब्द भावुकता से ओत-प्रोत है |और एक-एक शब्द पर महा-काव्य लिखे जा सकते है |यह वो का ऐसा अथाह समुद्र है जिसमे कोई एक बार डुबकी लगाये तो डुबता ही चला जाता है |श्री राम-चरित्र के बारे मे कुछ कहने के लिए कोई शब्द ही नही |इस पीडा का कोई अन्त नही , जितना इसे महसूस करो उतनी ही बढती जाती हैसीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-44545647570580790682010-03-22T00:24:00.000-07:002010-03-22T00:27:53.207-07:00मानस की पीड़ा - 8. शत्रुघ्न सन्तापगये वन को राम लखन सीता<br />और छोड़ गए है प्यारे पिता<br /><br />यह देख दुखित है शत्रुघ्न<br />पीड़ा से भरा था उसका मन<br /><br />सर रख के वह माँ की गोदी<br />और सुध-बुध सारी ही खो दी<br /><br />आँखों से तो आँसू बहते<br />चिल्ला चिल्ला कर यूं कहते<br /><br />भाई के बिन मैं न रहूंगा<br />दुख पिता का भी कैसे सहूंगा ?<br /><br />नहीं यह सब मैं सह सकता माँ<br />वापिस भाई को बुला लो ना<br /><br />मैं पिता वियोग भूलाऊंगा<br />जो राम सा भाई पाऊंगा<br /><br />मुझे प्यार पिता के समान दिया<br />नहीं दिल से कभी जुदा किया<br /><br />जो मैं नहीं जाता भरत के साथ<br />तो नहीं आती यह काली रात<br /><br />क्या राम ने मुझको याद किया<br />जब वन जाने का वचन दिया<br /><br />जाना था तो मिलकर जाते<br />हम को भी तो कुछ बतलाते<br /><br />क्यों किसी ने हमें बताया नहीं<br />और उनके मन में भी आया नहीं<br /><br />नहीं थे हम दोनों ही घर<br />और वो घर से हो रहे बेघर<br /><br />काश ! हमें वे मिल लेते<br />उन्हें कभी न यूँ जाने देते<br /><br />क्यों वाम हुआ यूँ विधाता<br />ऐसी तो न थी भरत-माता<br /><br />क्या उसका प्यार सब झूठा था<br />सच्च में उसका मन खोटा था<br /><br />नहीं भाभी ऊर्मि देखी जाती<br />नहीं वो भी किसी से बतियाती<br /><br />बड़ी माँ के आँसू नहीं सूखते<br />लगातार ही हैं बहते रहते<br /><br />दोनों भाई तो रहते हैं वन<br />पर बैठा महल में शत्रुघ्न<br /><br />यह महल भी खाने को आते<br />अब नहीं ये मन मेरे भाते<br /><br />माँ मैंने भी सोचा मन में<br />मैं भी अब जाऊंगा वन में<br /><br />जा के भैया के संग रहूंगा<br />और उन सबकी सेवा करूँगा<br /><br />सारे कष्टों को सह लूंगा<br />उनके संग जीवन जी लूंगा<br /><br />मुझको भी माँ दे दो आज्ञा<br />और खुशी से मुझे भी करो विदा<br /><br />नहीं पुत्र नहीं तुम जाओगे<br />तुम यहीं महलों में ही रहोगे<br /><br />राज्य की पूरी जिम्मेदारी<br />आ गई तेरे सिर पर भारी<br /><br />राम लखन अब है वन में<br />कितना है दुखित भरत मन में<br /><br />नहीं राज काज में मन लगता<br />वह तो बस रोता ही रहता<br /><br />राम की सेवा में है लखन<br />भरत के लिए है शत्रुघ्न<br /><br />नहीं अकेला रहेगा भरत<br />सेवा में रहेंगे दोनों ही सुत<br /><br />तुम अपना फर्ज निभाओगे<br />सेवा में भरत की जाओगे<br /><br />देखो टूट न जाए भरत<br />आज उसको तेरी जरूरत<br /><br />यूँ माँ ने सुत को समझाया<br />रिपुदमन को समझ में अब आया<br /><br />घर में वह सबको सँभालेगा<br />इन कष्टों से न डोलेगा<br /><br />मन ही मन में रोता रहता<br />और फर्ज सभी पूरे करता<br /><br />देखता सारा राज्य का काम<br />नहीं तनिक भी था मन में विश्राम<br /><br />पाल रहा माँ का आदेश<br />इच्छा नहीं कोई मन में शेष<br /><br />बस माँ की आज्ञा का पालन<br />करने में ही हो गया मग्न<br /><br />दूत राम के पास भिजवाता<br />हाल-चाल सब पुछवाता<br /><br />भाई भरत को जा देता धीरज<br />मस्तक पे लगाता चरण रज<br /><br />पास माताओं के जाता<br />अहसास उन्हें यह करवाता<br /><br />नहीं अकेली है माताएँ<br />हैं पास में उनके सुत जाए<br /><br />कितना बन गया वो जिम्मेदार<br />दी अपनी सारी खुशी मार<br /><br />घर में रहकर पत्नी से दूर<br />कितना था शत्रुघ्न मजबूर<br /><br />हृदय में लिए हरदम पीड़ा<br />उठाया था सबका बीड़ा<br /><br />कहती थी उससे यह ऊर्मिला<br />भाग्य से तुझसा भाई मिला<br /><br />नहीं तुमको कोई अपनी सुध-बुध<br />कितना सरल और कितना ही शुद्ध<br /><br />आयु छोटी बुद्धि में बड़ा<br />रघुकुल का एक है थम्ब खड़ा<br /><br />सबसे छोटा रघुकुल वीर<br />नहीं होना तुम कभी अधीर<br /><br />बचेगी तुझसे ही मर्यादा<br />यही रखना मन में इरादा<br /><br />तुम जैसे जहां कुल के रक्षक<br />वहां नहीं बन सकता कोई भक्षक<br /><br />चौदह वर्ष तो बहुत कम है<br />कुल के लिए अर्पण जीवन है<br /><br />नहीं तुम मन में कभी घबराना<br />दुविधा हो तो मुझको बतलाना<br /><br />तेरे भाई की जगह न ले सकती<br />पर सहायक अवश्य बन सकती<br /><br />समझाती कभी माँ कभी भाभी<br />वह नहीं बच्चा है रहा अभी<br /><br />शत्रुघ्न सब समझता बात<br />न देखे वो दिन और न रात<br /><br />फर्ज उसने हर निभाया<br />और हर जन को यह बतलाया<br /><br />भाई से बड़ा न कोई राज<br />माता - पिता है सर्वोत्तम ताज<br /><br />कष्टों से कभी नहीं डरना<br />करम के लिए बेशक मरना<br /><br />मन में चाहे कितना सन्ताप<br />पर रुक जाना भी तो है पाप<br /><br />सब के लिए है चलते रहना<br />जैसे भी कष्टों को सहना<br /><br />करम की गति बड़ी बलवान<br />चलो पथ पर उसको पहचान<br />***************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-63765757001837154582009-02-23T01:17:00.000-08:002010-03-21T23:50:08.030-07:00मानस की पीडा -भाग 7.भरत विलापमानस की पीडा<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">भाग 7.भरत विलाप</span></strong><br /><br />श्री राम जय राम जय जय राम<br />मन मे केवल श्री राम का नाम<br />अब था भरत नाना क घर<br />पर हर क्षण बसा राम अन्दर<br />शत्रुघन भी था भरत के साथ<br />अब कर रहे थे आपस मे बात्<br />जाने क्यो व्यकुल हो रहा मन<br />वहाँ खुश हो भैया राम लखन<br />आँखो मे आँसु भी आ रहे<br />दोनो ही दुखित हुए जा रहे<br />मन मे बेचैनी समा रही<br />पर समझ नही कुछ आ रही<br />समा रही मन मे भावुकता<br />और घर जाने की उत्सुकता<br />अब नही रहेन्गे नाना के यहाँ<br />कल ही जाएँगे अयोध्या<br />निकल पडे अगले ही दिन<br />भारी प्ड रहा था हर पल छिन<br />कुछ शकुन नही अच्छे हो रहे<br />दोनो ही यह थे कह रहे<br />किसी तरह से पहुँचे दोनो अवध<br />मन मे विचारो का चल रहा युद्ध<br />दोनो को अवध लगा सूना<br />लगा जैसे नही यह देश अपना<br />बस सन्नटा ही पसरा था<br />नही रोशन कोई घर था<br />न वहाँ पे थी कोई चहल-पहल<br />यह देख के मन भी गया दहल<br />रहे लोग भरत से मुँह फेर<br />समझने मे न लगी कोई देर<br />लोगो का उससे यूँ हटना<br />हुई अवश्य कोई दुर्घटना<br />पर क्या यह नही समझ पाए<br />जलदी से राज महल आए<br />जैसे ही उनके कदम पडे<br />दशरथ ने अपने प्राण छोडे<br />नही पिता से हो पाई थी बात<br />दिल पर लगा था ऐसा आघात<br />कुछ देर ही पहले पहुँच जाते<br />तो पिता से बाते कर पाते<br />जिस पिता ने चलना सिखलाया<br />वही अब दुनिया मे नही रहा<br />जो गोदि बिठा के खिलाता था<br />वही मृत्यु की छैया पे लेटा था<br />दोनो भाई गिरे बेसुध हो के<br />आँसु न रुकते थे रोके<br />पकडे हुए थे पिता के चरण<br />पिता की बाते कर रहे स्मरण<br />पर कहाँ है भैया लखन राम<br />जब विधाता भी हुआ वाम<br />क्यो नही दिख रहे दोनो भाई<br />अब भरत के मन मे यह आई<br />माताओ से बोले ! हे मैया<br />कहाँ है राम लखन भैया<br />सीता भाबी भी नही यहाँ<br />कही बाहर गए है तीनो क्या?<br />जलदी से उनको बुलवा ले<br />और यह सन्देश भी भिजवा दे<br />अब नही रहे है हमारे पिता<br />आपिस आएँ राम लखन सीता<br />सुमित्रा कौशल्या नही बोली<br />दुख से जुबान भी नही खोली<br />और अब बोली थी भरत की माँ<br />तुम ध्यान से मेरा सुनो कहना<br />राम को मैने वन भेजा<br />तुम बनोगे अयोध्या के राजा<br />तेरा रसता है साफ किया<br />और तेरे साथ इन्साफ किया<br />सिया लखन गए है स्वेच्छा से<br />नही गए है मेरी इच्छा से<br />मैने तो राम के लिए कहा<br />उसे चौदह वर्ष वनवास दिया<br />राम न तेरी बने बाधा<br />इसलिए था यह निर्णय साधा<br />नगर मे भी वह नही रहेगा<br />राजा बनने को नही कहेगा<br />अब साफ है तेरा हर रसता<br />बेशक नही था सौदा ससता<br />पति खो दिया इसका दुख है<br />पर सुत राजा अनुपम सुख है<br />कुछ पाने के लिए खोना पडता<br />पर भविश्य मे नही रोना पडता<br />अब मन मे नही रखो कोई दुख<br />राजा बन राज्य का भोगो सुख<br />बस्,बस माँ भरत था चिल्लया<br />तेरे मन मे जरा भी नही आया<br />तूने कितना बडा कर दिया पाप<br />बोलो क्या करना है मुझको राज<br />तुम राज्य की केवल थी भूखी<br />क्या सुहागिन हो कर नही थी सुखी<br />तुममे नही जरा सी भी ममता<br />क्या ऐसी होती है माता<br />अब तुम ही जा राज्य करना<br />पर मुझको सुत अब नही कहना<br />क्या ऐसी है जननी मेरी?<br />मै नही समझा सच्चाई तेरी<br />वो प्यार था तेरा बस झूठा<br />जिसने मेरा सबकुछ लूटा<br />अरे ! राम तो मेरी जिन्दगी है<br />वही तो मेरी बन्दगी है<br />नही चाहिए मुझे कुछ राम के बिना<br />उसके बिना क्या जीवन जीना<br />तुम नही समझी क्या है श्री राम<br />तुम्हे तो बस राज्य से काम<br />आज मुझ सा नही कोई अभागा<br />जिसके माथे पे कलन्क लागा<br />राज्य के लिए भाई को भेजा वन<br />नही तुझमे है इक माँ का मन<br />अपने सुत पे ही लगाया कलन्क<br />मुझसा नही कोई दुनिया मे रन्क<br />दुख है मुझे तुमने जन्म दिया<br />लज्जित हूँ क्या उपहार दिया<br />अब किसी को मुँह न दिखा सकता<br />नही पिता को वापिस ला सकता<br />कैसे होन्गे दोने भाई<br />क्या करती होगी सिया भाबी<br />वह तीनो ही सोचते होन्गे<br />दोषी ही मुझे कहते होन्गे<br />लालची ही मुझे वे समझेन्गे<br />मुझे कभी क्षमा भी नही करेन्गे<br />मुझसे तोडेगे हर नाता<br />कैसी है मेरी यह माता<br />उस भाई से दूर किया मुझको<br />इश्वर समझे हर कोई जिसको<br />कोटि राज्य कुर्बान वहाँ<br />श्री राम सा भाई हो जहाँ<br />पर मेरा भाग्य कितना क्रूर<br />वही भाई मुझसे हुआ दूर<br />तुम जननी यह नाता अपना<br />पर नही देखो सुत का सपना<br />तेरे सामने नही आऊँगा<br />तुम्हे अपना मुँह न दिखाऊँगा<br />मुझको अब पुत्र नही कहना<br />अच्छा यही मुझसे दूर रहना<br />जननी तुम कुछ नही कह सकता<br />किया भाई को दूर नही सह सकता<br />ऐसे विलाप कर रहा भरत<br />खुद से भी होने लगी नफरत<br />मुझे जीने का अधिकार नही<br />बिन राम क रहना स्वीकार नही<br />गिरा भरत राम की माँ के पास<br />बोला माँ ! मुझपे करो विश्वास<br />मुझे नही राज्य का लालच माँ<br />नही कह सकता मुझे करो क्षमा<br />नही केवल दूर हुआ बेटा<br />मेरे कारण ही तुम हुई विधवा<br />आज तो मै हो गया अनाथ<br />न माँ न पिता कोई भी साथ<br />तुमसे क्या कहुँ हे मँझली माँ<br />तेरे जैसी कोई माँ कहाँ<br />क्यो नही दिया तुमने मुझे जन्म<br />कितना भाग्यशाली है लखन<br />खुशी से सुत को दिया भेज<br />जहा पर है बिछी काँटो की सेज<br />ौसके लिए तो अवसर अच्छा<br />श्री राम का वही सेवक सच्चा<br />मै तो जीते ई मर गया<br />न वन का न घर का ही रहा<br />भाई औ पिता का छूटा साथ<br />मै तो आज हो गया अनाथ<br />जो मै ननिहाल नही जाता<br />ऐसा न करती यह माता<br />न खोते हम पिता का साया<br />रहती भाई की भी छाया<br />सब गलती ही थी मेरी<br />बुद्धि ही फेरी गई मेरी<br />मै ही था भाई को छोड चला<br />उसी का ही फल मुझे आज मिला<br />कभी नही बिछुडे चारो भाई<br />पर कैसी अब आँधी आई<br />इक दूजे के बिना जो नही जिए<br />वही भाई आज है बिछुड गए<br />अब केकैई को आई सुध<br />और खो दी उसने सुध्-बुध<br />गिर गई वहाँ हो के बेहोश<br />और खत्म हो गया सारा जोश<br />फिर नही किसी से वह बोली<br />सुत ने उसकी आँखे खोली<br />पर बीता वक्त नही आता हाथ<br />बस रह जाता है पश्चाताप<br /><br />*************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-78288689747180998222009-02-04T02:20:00.000-08:002009-02-04T02:29:21.476-08:00मानस की पीडा - भाग6.वन गमनमानस की पीडा<br /><br />भाग6.वन गमन<br /><br />सिया राम के साथ लखन<br />तैयार है अब जाने को वन<br />होना था आज राज्याभिषेक<br />खुश भी था अवधवासी हर एक<br />पर हुई थी यह अनहोनी बात<br />छा गई थी जैसे काली रात<br />राजा नही बनेन्गे अब श्री राम<br />और छोड जाएँगे अवध धाम<br />हर अवधवासी था सोच रहा<br />नही किसी को कोई होश रहा<br />सबकी आँखे थी भरी हुई<br />किसी अनहोनी से डरी हुई<br />बस सन्नाटा था फैला हुआ<br />नही कोई भी मुख था खिला हुआ<br />सबके ही मन मे थी हलचल<br />पर राम का वचन तो था अटल<br />रोक रही जनता उनको<br />हमे छोड नही जाओ वन को<br />सारी जनता तेरी सेना<br />चाहो जो तुम विरोध करना<br />हम तेरे लिए मिट जाएँगे<br />और तुमको ही राजा बनाएँगे<br />नही , नही ऐसा नही सोचना कभी<br />मुझको ऐसे नही रोकना कभी<br />करता माँ का आज्ञा पालन<br />धन्य है उस सुत का जीवन<br />मेरा जीवन भी सफल तभी<br />पूरा करूँगा मै वचन जभी<br />नही लाना ऐसा विचार<br />भारत का नही यह सभ्याचार<br />माता-पिता तो सबसे बढकर<br />वही तो दिखलाते है हमे डगर<br />सब कुछ तो सिखलाती है माँ<br />बनकर के बच्चो की छाया<br />पिता ही तो चलना सिखलाता<br />जब पहला कदम भी नही आता<br />माँ ही तो है पहली ईष्वर<br />उसके बिना तो जीवन नश्वर<br />वह माता-पिता है पूजनीय<br />हर पल है वे तो वँदनीय<br />माता -पिता की उत्तम वाणी<br />यह बात सदा जानी मानी<br />उसे बिना विचारे मान ही लो<br />शुभ होगा सदा यह जान ही लो<br />चुप हो गए सारे अवध के जन<br />पर राम जाएँ , नही मानता मन<br />अति उत्तम ! हम जाएँगे साथ<br />हम भी भोगेगे यह वनवास<br />हम भी अब वन मे जाएँगे<br />वही पर हम अवध बनाएँगे<br />तुम ही होगे वन के राजा<br />और हम होन्गे तेरी परजा<br />तुमको न अकेला छोडेगे<br />बेशक हम भूखे रह लेन्गे<br />पहनेगे हम वल्कल तन पे<br />नही करेन्गे कोई इच्छा मन मे<br />हम पर भी तो करो विश्वास<br />नाखुन से अलग न होगा माँस<br />मछली न रहे ज्यो बिना नीर<br />वैसे ही तुम सबकी तकदीर<br />तुम बसते हो हर धडकन मे<br />तुमको ही पाना जीवन मे<br />बस यही इक इच्छा है मन मे<br />और तुम्ही चले हो अब वन मे<br />हमको अब तुम रोकना नही<br />साथ जाने से भी टोकना नही<br />हम नही रहेन्गे अवध तुम बिन<br />सूना ही लगेगा यह हर छिन<br />खडे मार्ग मे जैसे पत्थर<br />श्री राम के पास नही उत्तर<br />सीता सन्ग श्री राम लखन<br />रथ पर जा रहे थे वन<br /><span class="">था जैसे</span> ही रथ बढा आगे<br />सारे ही जन पीछे भागे<br />आँखो मे बस अश्रु बहते<br />और मुख से राम राम कहते<br />जा रहे थे वे पीछे रथ के<br />जाते नन्दन जहा दशरथ के<br />जा पहुँचे थे इक वन मे<br />श्री राम ने सोचा अब मन मे<br />यह नही उत्तम वे साथ चले<br />अपना वह घर वीरान करे<br />जहा बूढी माँ बच्चे छोटे<br />यही उचित है वे घर को लौटे<br />श्री राम ने माया फैलाई<br />सबको ही नीद गहरी आई<br />वे छोड चले उन्हे सोते हुए<br />सारथी जा रहा था रोते हुए<br />दूर वनो को चले गए<br />और सारथी से शब्द कहे<br />जाकर सबको समझा देना<br />और यह भी तुम बतला देना<br />वनवास काट हम आएँगे<br />तब सबसे हम मिल पाएँगे<br />कोई भी पीछे नही आए<br />उत्तम यही वे घर को जाएँ<br />सीता सहित श्री राम लखन<br />पहुँच गए थे सघन वन<br />वहाँ चौदह वर्ष बिताएँगे<br />तब ही घर वापिस आएँगे<br /><br />**********************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-71086747725322867932009-01-20T02:18:00.000-08:002009-01-20T02:33:37.184-08:00मानस की पीडा -भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद<strong><span style="color:#ff0000;">मानस की पीडा<br />भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद</span></strong><br /><br /><br /><span style="color:#000066;">लक्ष्मण-उर्मिला सम्वाद मे वन गमन पूर्व का चित्रण किया है<br />लक्ष्मण् - उर्मिला तब नव - विवाहित थे बहुत कठिन होता है<br />किसी के लिये भी ऐसे हालात मे रहना , लेकिन उर्मिला और<br />लखन रहे जिसके बारे मे हमने कभी सोचा ही नही<br />कैसे रही होगी एक नव्-विवाहिता चौदह वर्ष तक पति से अलग<br />इसके लिए "विरहिणी उर्मिला" एक भाग अलग से लिखा है<br /><br /></span>**************************<br /><br /><strong><span style="color:#000066;">भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद<br /></span></strong><br />हर्षित था अब लक्ष्मण का मन<br />मिल गया था जैसे नव जीवन<br />माँ का आशीष लेने को चला<br />ऐसा भाई होगा किसका भला?<br />माँ ने भी खुश हो कहा लखन<br />श्री राम की सेवा मे जाओ वन<br />नही तुम केवल बेटे ही लखन<br />तुमसे है जुडा इक और जीवन<br />पत्नी की अनुमति भी ले लो<br />फिर जा के करम पूरा कर दो<br />मुझे गर्व है तुम जैसे सुत पर<br />हो जाएगा मेरा नाम अमर<br />यह अति उत्तम, था माँ से कहा<br />अब मुझे जाने की दो आज्ञा<br />उर्मि है सर्व गुण सम्पन्न माँ<br />नही टालेगी मेरा कहना<br />जाओ तुम अब खुशी से रहना<br />राम की दिल से सेवा करना<br />मुझ पर नही आए कोइ उलाहना<br />सीत का मानना हर कहना<br />अब सीता को ही माँ समझो<br />उस देवी की सेवा मे लगो<br />देखो, कभी न उनको तन्ग करना<br />उनका बेटा बनकर रहना<br />हाँ माँ , मै अब यही करूँगा<br />सेवा मे नही पीछे हटूँगा<br />नही परेशानी दूँगा उनको<br />नही मिलेगा उलाहना तुमको<br />अब चलता हूँ मुझे आज्ञा दो<br />हँस के इस सुत को विदा करदो<br />खुश रहो भाई की सेवा मे<br />रहना श्री राम के चरणो मे<br />माँ से तो मिल गई विदा<br />कैसे होगा पत्नी से जुदा<br />कैसे उसको बतलाएगा<br />उसे छोड के वन को जाएगा<br />यूँ सोचते हुए मन ही मन<br />आ गया उर्मि के पास लखन<br />नही शब्द है कुछ भी कहने को<br />कैसे कहे अकेली रहने को?<br />बस झुका हुआ सिर लिए हुए<br />आँखे था नीची किए हुए<br />चुप-चाप खडा था लखन वहा<br />खुश थी पत्नी उर्मिला जहा<br />देखा उर्मि ने ऐसा लखन<br />और् सोच यह मन ही मन<br />है कोइ शरारत फिर सूझी<br />जिसको उर्मिला नही बूझी<br />बोली ! क्या सूझा अब तुझको<br />कभी समझ नही आया मुझको<br />अब फिर परिहास बनाओगे<br />और फिर से मुझे सताओगे<br />अब जलदी से बोलो भी पिया<br />क्यो उदास है तेरा जिया<br />उर्मिला यूँ लखन से पूछ रही<br />मन की बातो को बूझ रही<br />जब लखन नही कुछ भी बोला<br />उर्मिला का ह्रदय भी डोला<br />क्य अनर्थ हुआ? आया मन मे<br />साधा है मौन क्यो लक्षमण ने?<br />यह सोच के वह घबराने लगी<br />लक्ष्मण को फिर से बुलाने लगी<br />क्या हुआ मुझे भी बत्लाओ<br />यूँ ऐसे न मुझको तडपाओ<br />अब लक्ष्मण धीरे से बोला<br />मुश्किल से उसने मुँह खोला<br />तुम रहो अकेली महलो मे<br />अब मै जाऊँगा जन्गलो मे<br />भैया भाबी की सेवा मे<br />रहूँगा उनके सन्ग ही वन मे<br />माँ केकैई ने है वचन लिया<br />श्री राम को है वनवास दिया<br />यूँ लक्ष्मण थे बता रहे<br />वनवास की बात सुना रहे<br />सुन कर उर्मि तो रोने लगी<br />और मुख आसुँओ से धोने लगी<br />तुम जाओ यही उत्तम होगा<br />इससे अच्छा क्या करम होगा?<br />दुख उनका है वन मे रहने का<br />वन के कष्टो को सहने का<br />गए नही है घर से बाहर कभी<br />पाई सुख सुविधा घर मे सभी<br />वन मे तो कुछ भी नही होगा<br />ऐसे मे तुम्हारा साथ होगा<br />बाँटना उनका अब सारा दर्द<br />अब यही तुम्हारा है बस फर्ज़<br />चाहती हूँ तेरे सन्ग जाऊँ<br />वन मे भी साथ तेरा पाऊँ<br />पर पूरा करना है करम तुम्हे<br />चाहे कितने भी कष्ट सहे<br />इस करम से नही पीछे हटना<br />दिल से अब सेवा मे जुटना<br />नही करम मे बनूँगी मै बाधा<br />इस लिए मैने निर्णय साधा<br />मै तेरा साथ निभायूँगी<br />जाओ तुम मै रह जाऊँगी<br />माँ की सेवा मे यहाँ रह कर<br />विरह के कष्टो को सहकर<br />मै चौदह वर्ष बिताऊँगी<br />प्रण है! मै नही घबराऊँगी<br />अब छोडो तुम चिन्ता मेरी<br />हर इच्छा पूरी होगी तेरी<br />मै साथ के लिए भी नही कहूँगी<br />तुम बिन मै अब यहाँ रहूँगी<br />सुन लखन के आँसु बहने लगे<br />पत्नी से ऐसे कहने लगे<br />तुम महान हो ! हे उर्मिला<br />पावन स्वभाव मे हो सरला<br />बस मुझ्को इक दे दो वचन<br />भरेन्गे नही कभी तेरे नयन<br />तुम रोयोगी,मुझको होगा दर्द्<br />नही पूरा कर पाऊँगा फर्ज़<br />उर्मिला ने आँसु पोछ दिए<br />और बोली , अब सुनो प्रिय<br />मेरे प्यार मे इतनी है शक्ति<br />मैने की है तेरी भक्ति<br />उस भक्ति को अपनाऊँगी<br />वादा नही आँसु बहाऊँगी<br />दोनो ही हो रहे थे भावुक<br />कितने ही पल वो थे नाज़ुक?<br />मौन हुए थे दोनो अब<br />जाने फिर वो मिलेन्गे कब<br />भर गए थे दोनो के ह्रदय<br />फिर भी मुख पर मुसकान लिए<br />लक्ष्मण ने कहा अब करो विदा<br />दिल से नही मै कभी तुमसे जुदा<br />माँ की सेवा मे रहना तुम<br />हर सुख दुख माँ से कहना तुम<br />जा रहा तो हूँ तुमको छोड के<br />पर नही जा रहा नाता तोड के<br />हम एक है एक रहेन्गे सदा<br />दिल से नही होन्गे कभी जुदा<br />मै इन्त्ज़ार मे तेरी पिया<br />समझाऊँगी यह पगला जिया<br />माँ के ही पास रहूँगी मै<br />पूरा हर फर्ज़ करून्गी मै<br />लक्ष्मण उर्मि को छोड चले<br />महलो से नाता तोड चले<br />अब है तैयार वन जाने को<br />साथ राम का पाने को<br />उर्मिला थी देख रही ऐसे<br />चन्दा को चकोरी देखे जैसे<br />पिया नाम पुकारती हर धडकन<br />पर नही विचलित हुआ उसका मन<br />धन्य थी वो नारी उर्मिला<br />जिसको जीवन मे सब था मिला<br />पर आज विरहिणी बन रही थी<br />फिर भी वह फर्ज़ निभा रही थी<br />देखते ही चले गए थे लखन<br />मन मे जल रही थी विरह अगन<br />फिर मन को वह समझाती है<br />खुद को अह्सास कराती है<br />चौदह ही वर्ष के बाद लखन<br />आएँगे हमारा होगा मिलन<br />तब तक मै राह मे बैठूँगी<br />पिया को सपने मे देखूँगी<br /><br /><br />************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com2tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-81486829314322584192009-01-15T04:00:00.000-08:002009-01-15T04:03:10.305-08:00मानस की पीडा भाग 4.राम-लक्षमण सम्वाद<strong><span style="color:#ff0000;">भाग 4.राम-लक्षमण सम्वाद</span></strong><br /><br />जय गणपति जय सूर्यदेव<br />जय विशणु ब्र्ह्मा औ महेष<br />कर रहे पूजा आज उर्मि-लखन<br />खुश था महल का हर एक जन<br />आज होगा राम का रज्याभिषेक<br />वर्षो से देखा था सपना एक<br />माता-पिता का अरमान था<br />जब उनका आँगन वीरान था<br />सोचते थे उनका भी होगा सुत<br />सूर्यवन्श का सूर्य देखेगा अवध<br />आज वो दिन तो आ ही गया<br />कौशल सुत बनेगा अब राजा<br />खुशी नही छुप रही थी छुपाने से<br />लख -उर्मि उत्सुक बताने मे<br />भूप राम सिया महारानी<br />अति सुन्दर जोडी जानी-मानी<br />राम के सिर राजा का ताज<br />देखने को है उत्सुक लखन आज<br />साथ मे सिया भी विराजेगी<br />उर्मि की बहन कैसी दिखेगी?<br />दोनो यूँ बाँट रहे खुशिया<br />रज्याभिषेक पे लगी अखियाँ<br />खुश हो रहे दोनो मन ही मन<br />कर रहे बात यूँ उर्मि लखन<br />तैयार हुए पहले सबसे<br />खिले हो कोई कमल जैसे<br />देखी ज्यो सूर्य की पहली किरण<br />राम के पास आया था लखन<br />भैया अब तुम होगे राजा<br />और मै हूँगा तेरी परजा<br />तुम मेरे भाई हो तब तक<br />नही बन जाते राजा जब तक<br />जी भर के देखूँ बडा भाई<br />बस यूँ ही मन मे आई<br />फिर तो तुम परजा को देखोगे<br />फिर मेरे भैया कहाँ रहोगे<br />ऐसे लखन यूँ ही बोलता जाता<br />मन की खुशी राम को जतलाता<br />पर यह क्या? तुम यूँ ही खडे हुए<br />अभी तक क्यो नही तैयार हुए<br />श्री राम जो सुख-दुख से है परे<br />सुन रहे लखन को खडे-खडे<br />नही दिखला रहे कोई खुशी औ गम<br />यह देख के रुके लखन के कदम<br />क्या बात है भैया बतलायो?<br />यूँ खडे हो क्यो? मुझे समझायो<br />देखती होगी तुमको परजा<br />बनना है अब तुमको राजा<br />फिर क्यो तेरी है यह हालत?<br />क्या मुझसे कुछ हुआ गलत?<br />भाबी तुम भी क्यो खडी मौन<br />क्या हुआ मुझे बतलायेगा कौन ?<br />किसी ने तुमसे कुछ गलत कहा?<br />लक्षमण का धैर्य तो जाता रहा<br />बिना सुने वह बोल रहा<br />श्री राम ने शान्त रहने को कहा<br />श्री राम थे बोले धैर्य से<br />बता रहे लक्षमण प्रिय से<br />पूरा करने को पिता का वचन<br />मै जाऊँगा सीता के सन्ग वन<br />अब राज्यभिषेक नही होगा<br />राजा प्रिय भाई भरत बनेगा<br />माँ केकैई ने यह लिया वचन<br />मुझे दिया है चौदह वर्ष का वन<br />सीता मेरी अर्धान्गिनी है<br />वह मेरी जीवन सन्गिनी है<br />मुझ बिन नही रहेगी वो महलो मे<br />मेरे सन्ग जायेगी जन्गलो मे<br />नही,नही अब नही यह हो सकता<br />हुआ है तुमको कोई धोखा<br />ऐसा नही कर सकती माता<br />तेरा भी तो सुत का है नाता<br />गर सच्च है , सुनो फिर मेरा कथन<br />मै देता हूँ तुमको वचन<br />तुमको नही वन जाने दूँगा<br />तेरे लिये पिता से भी लडूँगा<br />शान्त रहो तुम भैया लखन<br />अपना नही मैला करो तुम मन<br />यह तो है मेरा उत्तम भाग<br />मेरी किस्मत तो गई जाग<br />पिता के लिए मै वन जाऊँगा<br />उनका दिया वचन निभाऊँगा<br />पहला मौका है जीवन का<br />मेरा सपना ही था मन का<br />कभी पिता ने कुछ भी कहा नही<br />आवश्यक भी तो रहा नही<br />मै स्वयम को धन्य मानूँगा<br />जो पिता का प्रण पूरा करूँगा<br />रघुकुल रीति मे सुनो लखन<br />मर कर भी पूरा कर वचन<br />मै रघुकुल रीति निभाऊँगा<br />सिया के सन्ग वन को जाऊँगा<br />यूँ बीत जायेन्गे चौदह वर्ष<br />नही दुख कोइ , मन मे सच्च मे हर्ष<br />तुम यहाँ हर्षित रहना<br />माता-पिता की सेवा करना<br />नही नही भैया मै न रहूँगा<br />तुम बिन भला मै कैसे जिऊँगा<br />जिस भाई ने साथ दिया हर क्षण<br />वह जायेगा नही अकेला वन<br />मै भी अब साथ मे जाऊँगा<br />इक भाई का फर्ज़ निभाऊँगा<br />यह मेरा भी पहला अवसर<br />भाई सन्ग जाऊँगा वन की डगर<br />तुम भाबी का ध्यान रखना<br />मुझे एक दास ही समझ लेना<br />रो-रो कर कह रहा था लक्षमण<br />और पकड लिए थे राम-चरण<br />लक्षमण ने दे दी अपनी कसम<br />नही ले गए तो हो जाऊँगा खत्म<br />इस भाई से नही मिल पाओगे<br />फिर कैसा वचन निभाओगे ?<br />श्री राम के पास न शब्द रहे<br />उनके अश्रु भी बह गए<br />जिसका भाई इतना प्यारा<br />उसे क्या करना बन के राजा<br />वह बनेगे अब वन के राजा<br />और लक्ष्मण ही उसकी परजा<br />बनेगी सीता वन की रानी<br />और होगी यह अमर वाणी<br />लक्ष्मण भी वन मे जायेगा<br />और भाई का साथ निभाएगा<br />श्री राम ने भी अनुमति दे दी<br />और भाई की चाह पूरी कर दी<br /><br />**************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-73705979040241602192009-01-09T03:11:00.000-08:002009-01-09T03:34:37.562-08:00मानस की पीडा-भाग 3.दुविधा मे दशरथमानस की पीडा तृत्तीय भाग मे दशरथ के मन मे कैकेयी द्वारा राम-वनवास का वर मांगने पर दुविधा का वर्णन है वो श्री राम के लिए सबकुछ त्यागने को तैयार है और श्री राम को कूट्नीति भीसिखाना चहते है परन्तु वन भेजने के पक्ष मे नही है <br /><span class=""></span><br /><span style="color:#ff0000;">दुविधा मे दशरथ<br /></span><br /><br /><br />सारे महलो मे कितने खुश<br />पाये जो थे सब अनुपम सुख<br />शिक्षा दीक्षा सब हुई पूरी<br />इच्छा नही रही थी अधूरी<br />चारो ही सुत थे ब्याहे गये<br />दशरथ के सपने पूरे हुए<br />कितनी प्यारी बहुएँ उनकी<br />भोली है कितनी ही मन की<br />गर्वित कितना राजा दशरथ<br />जिसके चारो ऐसे थे सुत<br />एक से बढकर गुणी एक<br />और सबमे ही था विवेक<br />सामने था भविश्य का आइना<br />और दशरथ का यह कहना<br />अब मुझमे शक्ति हुई कम<br />बूढी हड्डियो मे नही दम<br />जिसमे हो अवध राज्य का भला<br />अब वही फैसला मै लेने चला<br />यह सोच के गुरु को बुल्वाया<br />दशरथ ने गुरु को बतलाया<br />अब राम ही राज्य सँभालेगा<br />वही अवध का अब राजा बनेगा<br />मै और नही कर सकता काम<br />मुझको भी चाहिये अब आराम<br />जितनी जल्दी हो शुभ मुहूर्त<br />देखूँ राम मे राजा की सूरत<br />खुश होगी अवध की भी परजा<br />मेरे सिर से उतरेगा कर्जा<br />शुभ मुहूर्त भी निकलवाया<br />अगला दिन शुभ यह बतलाया<br />पर गुरु तो डर गया था मन मे<br />क्यो राम दिखा मुझको वन मे<br />मन ही मन वह था समझ गया<br />पर राजा से कुछ नही कहा<br />होगा वही, जो ईश्वर इच्छा<br />इसमे नही किसी का बस चलता<br />पर कितना खुश था दशरथ<br />अति उत्तम जो शुभ है मुहूर्त<br />परजा को भी था कहलवाया<br />रानियो को भी जा बतलाया<br />तीनो रानी कितनी प्रसन्न<br />दे रही दुआएँ मन ही मन<br />नही किसी के मन मे कोई प्रश्न<br />खुश था अवध का हर एक जन<br />सबसे ज्यादा खुश केकैई<br />दासियो को रत्न लुटा रही<br />अब अवध का राजा होगा राम<br />सीता बैठेगी उसके वाम<br />जोडी कितनी है यह प्यारी<br />सारी दुनिया से यह न्यारी<br />पर जब देखी दासी मन्थरा<br />देखा उसका चेहरा उतरा<br />केकैई यह नही सब सह पाई<br />पूछे बिन भी नही रह पाई<br />बोली! यहाँ आओ मेरे पास<br />क्यो फिरती हो इतनी उदास?<br />मन्थरा ने अब मुँह फेरा<br />कुबुद्धि ने उसको था घेरा<br />तुम्हे क्या चाहिये मुझसे बोलो<br />और अब तुम अपना मुँह खोलो<br />ऐसे न मुँह फुलाये रहो<br />सब खुश है तुम भी खुश रहो<br />सब होन्गे खुश , इस महल मे<br />पर मै नही हुँ खुश दिल मे<br />तुमको नही बेशक कोई गिला<br />पर मै चाहती हूँ तेरा भला<br />रोक दो तुम यह राज्याभिषेक<br />नही तो पश्ताओगी दिन एक<br />चुप रहो तुम यह क्या कहती हो?<br />मन ही मन जलती रहती हो<br />नही करो कोइ ऐसी बात अशुभ<br />कोइ सुनेगा , मन मे होगा दुख<br />तुम दासी की बात क्यो मानोगी?<br />बनोगी दासी , तब जानोगी<br />राम बनेगा जो राजा<br />कौशल्या होगी राज माता<br />तुम बस दासी बन जाओगी<br />फिर रोयोगी और पश्ताओगी<br />केकैई की थोडी बुद्धि फिरी<br />और दुर्भावना मे वह घिरी<br />मन्थरा फिर से बतियाने लगी<br />उसको वह राज बताने लगी<br />दशरथ ने दिये थे तुम्हे वचन<br />माँगना जब तेरा चाहे मन<br />उसके लिये अब अवसर अच्छा<br />और राजा है प्रण का सच्चा<br />वह वचन से कभी न भागेगा<br />बेशक उसको कुछ दुख होगा<br />यूँ कह के मन्थरा चली गई<br />केकैई की बुद्धि मारी गई<br />उसको न सूझी कोई और बात<br />यूँ सोचते ही हो गई रात<br />जा के बैठी वह कोप भवन<br />कोई न समझ पाया कारन<br />सोचा किसी बात से हुई नाराज़<br />कुछ मनवाना चाहती है आज<br />यही तो वह करती थी हर बार<br />कुछ चाहती तो हो जाती नराज़<br />यह देख के हँसती थी कौशल्या<br />उसने ऐसा ही स्वभाव पाया<br />आज भी कुछ चाहती होगी<br />तभी कोप भवन बैठी होगी<br />दशरथ गये थे हर बार की तरह<br />बैठी थी वह गुस्से मे जहा<br />राजा जाके यूँ मनाने लगा<br />केकैई को गुस्सा आने लगा<br />दिए थे तुमने दो मुझे वचन<br />आज् उस माँगने का मेरा मन<br />भरत राजा यह पहला वचन<br />और दूसरा राम को भेजो वन<br />वन मे रहेगा वह चौदह साल<br />छोडे राजा बनने का ख्याल<br />राजा ने तो मज़ाक समझा<br />और प्यार से केकैई से बोला<br />क्यो कर रही हो तुम ऐसे हँसी<br />तेरी जान तो राम मे ही है बसी<br />जब देखा आँखो मे शत्रुपन<br />राजा का दहल गया था मन<br />खुद पे विश्वास भी नही हुआ<br />यह उससे रानी ने क्या कहा?<br />ऐसे समय मे यह क्या मान्गा?<br />जब राम बनने वाला राजा<br />यह सोच के गिर गया था दशरथ<br />कैसे भेजूँ राम को वन के पथ?<br />राजा भरत , नही कोई हरज<br />पर दूसरा कैसा है वर ?<br />क्यो राम बने अब वनवासी<br />जग मे होगी कितनी ही हँसी<br />क्यो केकैई यह सब गई भूल<br />उसकी बुद्धि पर पडी धूल<br />क्या कर रही है? यह नही जानती<br />कोई बात भी तो अब नही मानती<br />कितना केकैई को समझाया<br />पर उसकी समझ मे नही आया<br />अपनी ही बात पे अडी रही<br />बर्बादी की राह पे खडी रही<br />दशरथ के मन मे बडी दुविधा<br />कहने मे नही हो रही सुविधा<br />वह क्या करे? और क्या न करे?<br />रहे जिन्दा या जीते जी ही मरे<br />राम तो उसका जीवन है<br />क्या उसके भाग्य मे वन है?<br />नही भेजूँ तो जायेगा कुल का मान<br />भेजूँ तो जायेगी मेरी जान<br />पर राम से बडा न कोइ मान<br />सह लूँगा मै यह भी अपमान<br />पर राम को वन न भेजूँगा<br />ऐसा प्रण न पूरा करूँगा<br />रघुकुल रीति भी जायेगी<br />मर्यादा नही रह पाएगी<br />होना पडेगा मुझे शर्मिन्दा<br />नही ऐसे मे रह पाऊँगा जिन्दा<br />मर जाऊँ मुझे कोइ नही परवाह<br />नही राम को भेजूँगा वन की राह<br />पर इससे नही कोइ हित होगा<br />प्रण तोडना भी अनुचित होगा<br />पूरे कुल को बदनाम करूँ<br />मै तो दोनो ही तरफ मरूँ<br />नही राम वियोग भी जर सकता<br />कुल को बदनाम न कर सकता<br />समझ सोच सारी खोई<br />आज राजा की आँखे रोई<br />जीवन भर नही झुका था जो<br />आज जमी पर पडा था वो<br />बेसुध होकर गिरा हुआ<br />और दुविधा मे घिरा हुआ<br />नही सोच सका वह हित की बात<br />ऐसे ही बीत गई थी रात<br />श्री राम को अब था बुलवाया<br />रानी का प्रण भी बतलाया<br />तुम्हे कहता है यह पिता तेरा<br />तुम आज विरोध करो मेरा<br />तेरे साथ रहेगी सब सेना<br />मुझे राज्य से बाहर कर देना<br />पर नही जाना यूँ तुम वन<br />बिताना यहाँ पे सुखी जीवन<br />किसी की आज्ञा नही जरूरी<br />मानना भी नही तेरी मजबूरी<br />मै तुमको आज बताता हूँ<br />तुम्हे कूटनीति सिखलाता हूँ<br />यह परजा को जाकर कहदो<br />और अपने पिता का विरोध कर दो<br />मै यह सब तो सह जाऊँगा<br />पर, बिन देखे तुम्हे मर जाऊँगा<br />तुम्ही मे बसती है मेरी जान<br />तुम ही तो मेरे हो अरमान<br />तुम बिन जिन्दा न रहूँगा मै<br />सारे अपमान सहूँगा मै<br />नही,नही ऐसा नही बोलो आप<br />नही कुल का बन सकता मै श्राप<br />नही कहो ऐसा करने को पाप्<br />जो कुल के लिये बने अभिशाप<br />नही सीखनी मुझे कूट्नीति<br />मै तो जानता रघुकुल रीति<br />मै अपनी जान भी दे सकता<br />नही माँ को रुसवा कर सकता<br />माँ की आज्ञा तो सर्वोत्तम<br />यही तो मेरा भाग्य उत्तम<br />मै माँ की आज्ञा मानूँगा<br />और अब जा के वन मे रहूँगा<br />मुझे जरा भी मन मे नही मलाल<br />नही करो अपना ऐसे बुरा हाल<br />इससे बडा क्या उत्तम भाग्य<br />माँ से बढकर मुझे नही राज्य<br />नही टूटने दूँगा आपका वचन<br />बिना सोचे अब जाऊँगा वन<br />नही रखो कोइ मन मे दुविधा<br />और खुशी से मुझको करो विदा<br />यूँ कह के राम ने ठान लिया<br />वन मे रहने का वचन दिया<br />श्री राम ने खत्म कर दी दुविधा<br />पर राजा को नही हुई सुविधा<br />रोते हुए पिता को छोड गए<br />श्री राम तो वहाँ से चले गए<br />साथ मे ले के सिया औ लखन<br />श्री राम तो चले गए थे वन<br />पर हुआ था पिता-सुत का वियोग<br />क्या बुरा बना था वह सन्योग<br />राजा दशरथ नही जी पाए<br />कुछ दिन मे ही प्राण त्याग दिए<br />बस राम राम श्री राम राम<br />अन्तिम समय मे बस यही नाम<br />कितने ही दिल मे दर्द लिए<br />राजा ने अपने प्राण दिए<br /><br /><br />**************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-88967402348149759012009-01-07T04:21:00.000-08:002009-01-15T04:04:15.041-08:00मानस की पीडा-द्वितीय भाग राम-स्तुतिमानस की पीडा के द्वितीय भाग राम-स्तुति मे तुलसी दास जी द्वारा पत्नी की धिक्कार खा कर घर त्याग कर श्री राम चरणो मे समर्पण कर देने पर प्रार्थना की गई है<br />इसके उपरान्त तुलसी दास पूरी तरह से राममय हुए और महान ग्रन्थों की रचना कर डाली<br /><strong><span style="color:#ff0000;"><span style="font-size:180%;">राम स्तुति</span></span></strong><br /><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgscGZVDxdo7dBav2QCE6em77Wxn3GrlRgMHXATsNubcEvmFJmkzgSJQ0-90awPJoe6ppMi-6BctLcM8ghI2ROaF1Km33w5AKhoMiNKM3499l_JPgVvA-AF1E-zwn75zDB6YhJgBIkXZUY/s1600-h/ram-lakshman-sita.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5288527549512487698" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 250px; CURSOR: hand; HEIGHT: 329px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgscGZVDxdo7dBav2QCE6em77Wxn3GrlRgMHXATsNubcEvmFJmkzgSJQ0-90awPJoe6ppMi-6BctLcM8ghI2ROaF1Km33w5AKhoMiNKM3499l_JPgVvA-AF1E-zwn75zDB6YhJgBIkXZUY/s400/ram-lakshman-sita.jpg" border="0" /></a><br />जय राम राम श्री राम<br />जग मे पावन इक तेरा नाम<br />इससे तो तर जाते प्रस्तर<br />तेरे नाम से हो जाते है अमर<br />हे जगत पिता हे रघुनन्दन<br />कातो अब मेरे भी बन्धन<br />रघुकुल के सूर्य राजा राम<br />लज्जित तुम्हे देख करोडो काम<br />कौशल नन्दन हे सीता पति<br />तेरे नाम मे है अद्भुत शक्ति<br />तू सुख सम्रिधि का दाता<br />तुम जगत पिता सिया जग माता<br />तुझ सन्ग शोभित है सिया लखन<br />अर्पण तुझ पर अब यह जीवन<br />इस जीवन का उद्धार करो<br />मुझे भव सागर से पार करो<br />साथ मे पवन पुत्र हनुमान<br />अनुपम झाङ्की को मन मे जान<br />हम करते है तेरा वन्दन<br />आकर दर्शन दो रघुनन्दन<br />हे सरल शान्त कौशल नन्दन<br />हम बाँस है और तू है चन्दन<br />हम पातक , तू पातक हर्ता<br />हे भाग्य विधाता सुख करता<br />इस जीवन का उधार करो<br />सब कष्ट हरो सब कष्ट हरो<br />..................<br />..................<br />यूँ राम की करते हुए विनय<br />तुलसी तो हो ही गया राममय<br />नही सूझे कुछ श्री राम बिना<br />बिन राम के जीना भी क्या जीना<br /><br />************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3492779659708646360.post-21850477068156692542009-01-01T22:25:00.000-08:002009-01-15T04:06:22.873-08:00मानस की पीडा- 1.तुलसीदास - वैराग्य की रात<span style="color:#000066;">प्रथम भाग "<strong>तुलसीदास वैराग्य की रात</strong>" मे तुलसीदास के जीवन<br />की उस रात को व्यक्त किया है जब वे पूर्ण रूप से श्री राम के<br />चरणो मे आए और रामचरित मानस ,विनय-पत्रिका, कवितावली,<br />दोहावली,जानकी मङ्गल्,पार्वती मङ्गल्......जैसे पावन ग्रन्थ रच डाले<br />जब जब श्री राम का नाम आयेगा, तुलसीदास का नाम साथ मे आयेगा<br />तुलसी को राम से अलग किया ही नही जा सकता </span><br /><br />***********************<br /><br /><strong><span style="color:#ff0000;">1.तुलसीदास - वैराग्य की रात</span></strong><br /><br />श्री राम जय राम जय जय राम<br />हर पल है जुबा पर यही नाम<br />घन्घोर है तम तूफा गहरा<br />ऊपर से हो रही थी वर्षा<br />बादल गरजे बिजली चमके<br />पर उसके पैर अब कहाँ रुके<br />कहाँ कब और कैसे जायेगा<br />वह किसी को नही बतायेगा<br />पत्नी ने दी ऐसी धिक्कार<br />मिट गया था सारा अहँकार<br />अब आया था उसको ध्यान<br />जीवन उसका केवल श्री राम<br />पत्नी के मोह मे फँसा ऐसा<br />उसे स्मरण राम भी नही रहा <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHGySq0s0UcWrKRn_NYkVDkpW0bJaDbitaGRTxzkOJM7yJ_u5MqBrpQXe5abzYEB-t3rcMoG4t26EogkfKXbc4DIHruUpS_OB-AqMbom6JQ_j3F559N3yPVVONfnlWLkwcPbyaKjTzdtI/s1600-h/SrimadGoswamiTulsidas.jpg"><img id="BLOGGER_PHOTO_ID_5286581947943171522" style="FLOAT: right; MARGIN: 0px 0px 10px 10px; WIDTH: 314px; CURSOR: hand; HEIGHT: 400px" alt="" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgHGySq0s0UcWrKRn_NYkVDkpW0bJaDbitaGRTxzkOJM7yJ_u5MqBrpQXe5abzYEB-t3rcMoG4t26EogkfKXbc4DIHruUpS_OB-AqMbom6JQ_j3F559N3yPVVONfnlWLkwcPbyaKjTzdtI/s400/SrimadGoswamiTulsidas.jpg" border="0" /></a><br />आज जब बोली थी रत्ना<br />जो राम से प्रेम करो इतना <a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiIjHnOBmi95owAEvdg1gZAmmS67WeiKdzVZvP75-MopBYtUQY2gFblzzKOxy3LYWLxmxb2Uth-id3bJbMqpNAExDVXu-SB5dunJETDOwTM_4fR_iuEuf089z9lcKlkPONWJlCNTpjc9uU/s1600-h/SrimadGoswamiTulsidas.jpg"></a><br />तुम जग मे अमर हो जाओगे<br />भव-सागर भी तर जाओगे<br />झूठे मोह मे फँस कर तो तुम<br />अपना यह जीवन गँवाओगे<br />मुर्दे पे बैठ के आये हो<br />और साँप को रस्सी बनाए हो<br />चोरो की तरह घुस कर घर मे<br />तुम क्या परिचय करवाए हो<br />तुम्हे जरा शर्म भी नही आई<br />ऐसी भी क्या थी तन्हाई<br />यही प्रेम राम से किया होता<br />तो आज न तू तन्हा होता<br />उसे प्रेम करो जो विधाता है<br />जो इस जीवन का दाता है<br />जिस काम से तुमने लिया जन्म<br />अपना वह पूरा करो करम<br />उलटे पाँवो तुलसी था मुडा<br />और तभी श्री राम से नाता जुडा<br />जब पत्नी ने धिक्कार दिया<br />प्रभु राम ने आ के सँभाल लिया<br />जा रहा था अब वह उस पथ पर<br />बैठा था राम-नाम रथ पर<br />अब छोड चला था वह उसको<br />जीवन उसने समझा जिसको<br />मन अशान्त औ सोच गहरी<br />तुलसी की दृष्टि वही ठहरी<br />जहा वह श्री राम को पाएगा<br />जीवन को सफल बनाएगा<br />अब तक वह क्यो था रहा तम मे<br />यह सोच रहा मन ही मन मे<br />यह सोच - सोच चलता जाता<br />श्री राम प्रेम बढता जाता<br />तुम कहाँ हो अब हे रघुनन्दन<br />आ कर काटो मेरे बन्धन<br />मै दुर्जन , मूर्ख पातक<br />अपने ही लिये बन गया घातक<br />क्यो मै भूला तुमको रघुवर<br />क्यो छोड दिया मैने वो दर<br />है तू बसता जिसके अन्दर<br />क्यो छोडा मैने वो मन मन्दिर<br />क्यो इस मारग से भटक गया<br />और मोह माया मे अटक गया<br />क्यो तब नही सूझा था मुझको<br />जब छोड गया था मै तुझको<br />मै उस रघुवर को भूल गया<br />जिसने है हर पल साथ दिया<br />जिसके लिये छोड दिया तुझको<br />उसने ही ठुकराया मुझको<br />यह दुनिया सारी झूठ है<br />जहाँ हर पग-पग पर लूट है<br />नही कोइ किसी का हो सकता<br />जीवन भर साथ निभा सकता<br />मैने क्या ऐसा गलत किया<br />उसके लिये सबकुछ छोड दिया<br />हर स्वास पे नाम लिखा उसका<br />यह तुलसी हो गया था जिसका<br />मैने बस उससे प्रेम किया<br />अर्पण अपना नित्-नेम किया<br />जिसे प्रेम किया सबसे ज्यादा<br />और किया था जिससे यह वादा<br />वह साथ न उसका छोडेगा<br />सारे ही बन्धन तोडेगा<br />मैने झूठ नही कभी कोइ कहा<br />हर पल उसका हूँ हो के रहा<br />मैने वादा अपना निभाया था<br />और उसी को मन मे बसाया था<br />बन प्रेम पुजारी उसका मै<br />उससे ही मिलने आया था<br />क्यो प्रेम को उसने नही जाना<br />और मुझको ही मूर्ख माना<br />उसे जरा समझ मे नही आया<br />तुलसी वहाँ पर है क्यो आया<br />इक पल मे तोड दिया नाता<br />क्या ऐसे ही छोड दिया जाता?<br />बस इतना प्यार ही मुझसे था<br />जिसको मै कभी नही समझा<br />रत्ना ऐसा नही कर सकती<br />मेरा साथ कभी नही तज सकती<br />हर पल मेरे साथ बिताती थी<br />अपना हर फर्ज़ निभाती थी<br />पर आज छोड गई मेरा साथ<br />बाहर कितनी काली है रात<br />सोचा नही कैसे मै आया हूँ<br />आ कर उसको बतलाया हूँ<br />कितनी देखी मैने मुश्किल<br />तब जा कर कही हुआ सफल<br />क्यो चली आई मुझसे बिना कहे<br />तुलसी तुम बिन अब कैसे रहे?<br />पर रत्ना ने कहाँ सुना<br />बिन समझे ही धिक्कार दिया<br />सोचते तुलसी यूँ गिर ही पडे<br />बहने लग आँसु बडे-बडे<br />पीडा थी अब अन्दर- बाहर<br />न सूझ रही थी कोई डगर<br />सुनसान मे जाकर बैठ गया<br />रो-रो कर वही पे लेट गया<br />बाहर वर्षा तूफा अन्दर<br />पत्नी का प्रेम लगा खण्डहर<br />वह टूट के उस पर गिर गया था<br />उसमे तुलसी भी दब गया था<br />उस खण्डहर से निकले कैसे<br />शुध हो जाये उसका मन जैसे<br />बैठा तुलसी बस रो ही रहा<br />मुख को आँसुओ से धो ही रहा<br />रोते हुए भाव बहा रहा था<br />अब स्वयम को ही समझा रहा था<br />बह गई नफरत अश्रु बन कर<br />बन गया था कुन्दन वह जल कर<br />नही बुरा भाव कोई मन मे रहा<br />खुश हो कर तुलसी बोला ! अहा<br />श्री राम ने यह अच्छा ही किया<br />मेरे दोषो का दण्ड दिया<br />क्यो दोष मै रत्ना को दे रहा?<br />क्यो मैने उसको बुरा कहा?<br />वह तो देवी सबसे पावन<br />जिसने शुध किया है मेरा मन<br />प्रेम तो बस उसका सच्चा<br />मै ही हूँ अक्ल मे बस कच्चा<br />उसने ही तो समझाया है<br />श्री राम का मार्ग बताया है<br />धन्य है वह देवी रत्ना<br />जो आज न होती यह घटना<br />कैसे मै उसको छोड देता<br />श्री राम से नाता जोड लेता<br />मेरे लिये तो सम्भव नही था<br />मै तो भँवर मे घिरा ही था<br />रत्ना ने ही तो निकाला है<br />डूबते तुलसी को सँभाला है<br />मुझे क्षमा कर देना हे रघुवर<br />दुर्भाव आये मेरे अन्दर<br />उस देवी को भी बुरा कहा<br />जिसने मुझे मार्ग दिखा दिया<br />अब नही तुलसी रुक पायेगा<br />श्री राम शरण मे जायेगा<br />उसको पाना है जीवन मे<br />नही कोइ पछतावा अब मन मे<br />जो हुआ , अच्छा ही हुआ<br />तुलसी तो अब श्री राम का हुआ<br />उसकी मन्जिल श्री राम चरण<br />अब उन्ही चरणो मे होगा मरण<br />रच डाला रामचरित मानस<br />श्री राम की हो गई कथा अमर<br />लिखते कभी पत्रिका मे विनय<br />सबके लिये राम हो मन्गलमय<br />बरवै रामायण लिख दी<br />फिर विनय मे लिख दी दोहावली<br />मन मे शान्ति फिर भी नही<br />अर्पण की राम को कवितावली<br />खुश हो जानकी मन्गल लिखते<br />सिया-राम भक्ति मे रत रहते<br />पर नही भरा तुलसी का मन<br />लिख दी वैराग्य सन्दीपन<br />हर एक शब्द मे भरा भाव<br />पर नही भरा ह्रदय का घाव<br />वह घाव तो बढता ही जाता<br />तुलसी उसमे घुलता जाता<br />तुलसी लिखता जाता जितना<br />गहरा होता वह घाव उतना<br />भाव का उमडता वह तूफान<br />जिससे तुलसी भी था अनजान<br />राम नाम ऐसा सागर<br />पैठा उसमे जो कोइ अगर<br />नही फिर वह बाहर आ सकता<br />उस अनुभव को न बता सकता<br />दिल पर थे उसके ऐसे जख्म<br />बस राम नाम उसका मरहम<br />बिन सोचे ही लिखता जाता<br />क्या चाहता है उससे विधाता<br />क्या लिख दी उसने कथा अमर<br />उस कथा से शोभित हर मन्दिर्<br />यह तुलसी की है अमर वाणी<br />श्री राम कथा जानी-मानी<br />श्री राम का नाम जब आयेगा<br />तुलसी का नाम भी आयेगा<br />भिन्न नही हो सकते यह नाम<br />राम तुलसी और तुलसी राम<br />जितना लिखता लगता वह कम<br />सोच के आँखे होती नम<br />श्री राम के दर्शन की इच्छा<br />यही तो तुलसी का प्रेम सच्चा<br />करता हर पल श्री राम जाप<br />धुल जाते जिससे सारे पाप<br />मन मे सिया- राम की ही भक्ति<br />इस नाम मे है अद्भुत शक्ति<br />इससे भी मन जो नही भरता<br />श्री राम का बस वन्दन करता<br />*************************सीमा सचदेवhttp://www.blogger.com/profile/04082447894548336370noreply@blogger.com11