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मानस की पीड़ा - 8. शत्रुघ्न सन्ताप

गये वन को राम लखन सीता और छोड़ गए है प्यारे पिता यह देख दुखित है शत्रुघ्न पीड़ा से भरा था उसका मन सर रख के वह माँ की गोदी और सुध-बुध सारी ही खो दी आँखों से तो आँसू बहते चिल्ला चिल्ला कर यूं कहते भाई के बिन मैं न रहूंगा दुख पिता का भी कैसे सहूंगा ? नहीं यह सब मैं सह सकता माँ वापिस भाई को बुला लो ना मैं पिता वियोग भूलाऊंगा जो राम सा भाई पाऊंगा मुझे प्यार पिता के समान दिया नहीं दिल से कभी जुदा किया जो मैं नहीं जाता भरत के साथ तो नहीं आती यह काली रात क्या राम ने मुझको याद किया जब वन जाने का वचन दिया जाना था तो मिलकर जाते हम को भी तो कुछ बतलाते क्यों किसी ने हमें बताया नहीं और उनके मन में भी आया नहीं नहीं थे हम दोनों ही घर और वो घर से हो रहे बेघर काश ! हमें वे मिल लेते उन्हें कभी न यूँ जाने देते क्यों वाम हुआ यूँ विधाता ऐसी तो न थी भरत-माता क्या उसका प्यार सब झूठा था सच्च में उसका मन खोटा था नहीं भाभी ऊर्मि देखी जाती नहीं वो भी किसी से बतियाती बड़ी माँ के आँसू नहीं सूखते लगातार ही हैं बहते रहते दोनों भाई तो रहते हैं वन पर बैठा महल में शत्रुघ्न यह महल भी खाने को आते अब नहीं ये मन मेरे भाते म

मानस की पीडा -भाग 7.भरत विलाप

मानस की पीडा भाग 7.भरत विलाप श्री राम जय राम जय जय राम मन मे केवल श्री राम का नाम अब था भरत नाना क घर पर हर क्षण बसा राम अन्दर शत्रुघन भी था भरत के साथ अब कर रहे थे आपस मे बात् जाने क्यो व्यकुल हो रहा मन वहाँ खुश हो भैया राम लखन आँखो मे आँसु भी आ रहे दोनो ही दुखित हुए जा रहे मन मे बेचैनी समा रही पर समझ नही कुछ आ रही समा रही मन मे भावुकता और घर जाने की उत्सुकता अब नही रहेन्गे नाना के यहाँ कल ही जाएँगे अयोध्या निकल पडे अगले ही दिन भारी प्ड रहा था हर पल छिन कुछ शकुन नही अच्छे हो रहे दोनो ही यह थे कह रहे किसी तरह से पहुँचे दोनो अवध मन मे विचारो का चल रहा युद्ध दोनो को अवध लगा सूना लगा जैसे नही यह देश अपना बस सन्नटा ही पसरा था नही रोशन कोई घर था न वहाँ पे थी कोई चहल-पहल यह देख के मन भी गया दहल रहे लोग भरत से मुँह फेर समझने मे न लगी कोई देर लोगो का उससे यूँ हटना हुई अवश्य कोई दुर्घटना पर क्या यह नही समझ पाए जलदी से राज महल आए जैसे ही उनके कदम पडे दशरथ ने अपने प्राण छोडे नही पिता से हो पाई थी बात दिल पर लगा था ऐसा आघात कुछ देर ही पहले पहुँच जाते तो पिता से बाते कर पाते जिस पिता ने चलना सिखलाय

मानस की पीडा - भाग6.वन गमन

मानस की पीडा भाग6.वन गमन सिया राम के साथ लखन तैयार है अब जाने को वन होना था आज राज्याभिषेक खुश भी था अवधवासी हर एक पर हुई थी यह अनहोनी बात छा गई थी जैसे काली रात राजा नही बनेन्गे अब श्री राम और छोड जाएँगे अवध धाम हर अवधवासी था सोच रहा नही किसी को कोई होश रहा सबकी आँखे थी भरी हुई किसी अनहोनी से डरी हुई बस सन्नाटा था फैला हुआ नही कोई भी मुख था खिला हुआ सबके ही मन मे थी हलचल पर राम का वचन तो था अटल रोक रही जनता उनको हमे छोड नही जाओ वन को सारी जनता तेरी सेना चाहो जो तुम विरोध करना हम तेरे लिए मिट जाएँगे और तुमको ही राजा बनाएँगे नही , नही ऐसा नही सोचना कभी मुझको ऐसे नही रोकना कभी करता माँ का आज्ञा पालन धन्य है उस सुत का जीवन मेरा जीवन भी सफल तभी पूरा करूँगा मै वचन जभी नही लाना ऐसा विचार भारत का नही यह सभ्याचार माता-पिता तो सबसे बढकर वही तो दिखलाते है हमे डगर सब कुछ तो सिखलाती है माँ बनकर के बच्चो की छाया पिता ही तो चलना सिखलाता जब पहला कदम भी नही आता माँ ही तो है पहली ईष्वर उसके बिना तो जीवन नश्वर वह माता-पिता है पूजनीय हर पल है वे तो वँदनीय माता -पिता की उत्तम वाणी यह बात सदा जानी मानी उसे

मानस की पीडा -भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद

मानस की पीडा भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद लक्ष्मण-उर्मिला सम्वाद मे वन गमन पूर्व का चित्रण किया है लक्ष्मण् - उर्मिला तब नव - विवाहित थे बहुत कठिन होता है किसी के लिये भी ऐसे हालात मे रहना , लेकिन उर्मिला और लखन रहे जिसके बारे मे हमने कभी सोचा ही नही कैसे रही होगी एक नव्-विवाहिता चौदह वर्ष तक पति से अलग इसके लिए "विरहिणी उर्मिला" एक भाग अलग से लिखा है ************************** भाग5.उर्मिला- लक्षमण सम्वाद हर्षित था अब लक्ष्मण का मन मिल गया था जैसे नव जीवन माँ का आशीष लेने को चला ऐसा भाई होगा किसका भला? माँ ने भी खुश हो कहा लखन श्री राम की सेवा मे जाओ वन नही तुम केवल बेटे ही लखन तुमसे है जुडा इक और जीवन पत्नी की अनुमति भी ले लो फिर जा के करम पूरा कर दो मुझे गर्व है तुम जैसे सुत पर हो जाएगा मेरा नाम अमर यह अति उत्तम, था माँ से कहा अब मुझे जाने की दो आज्ञा उर्मि है सर्व गुण सम्पन्न माँ नही टालेगी मेरा कहना जाओ तुम अब खुशी से रहना राम की दिल से सेवा करना मुझ पर नही आए कोइ उलाहना सीत का मानना हर कहना अब सीता को ही माँ समझो उस देवी की सेवा मे लगो देखो, कभी न उनको तन्ग करना उनका बेटा

मानस की पीडा भाग 4.राम-लक्षमण सम्वाद

भाग 4.राम-लक्षमण सम्वाद जय गणपति जय सूर्यदेव जय विशणु ब्र्ह्मा औ महेष कर रहे पूजा आज उर्मि-लखन खुश था महल का हर एक जन आज होगा राम का रज्याभिषेक वर्षो से देखा था सपना एक माता-पिता का अरमान था जब उनका आँगन वीरान था सोचते थे उनका भी होगा सुत सूर्यवन्श का सूर्य देखेगा अवध आज वो दिन तो आ ही गया कौशल सुत बनेगा अब राजा खुशी नही छुप रही थी छुपाने से लख -उर्मि उत्सुक बताने मे भूप राम सिया महारानी अति सुन्दर जोडी जानी-मानी राम के सिर राजा का ताज देखने को है उत्सुक लखन आज साथ मे सिया भी विराजेगी उर्मि की बहन कैसी दिखेगी? दोनो यूँ बाँट रहे खुशिया रज्याभिषेक पे लगी अखियाँ खुश हो रहे दोनो मन ही मन कर रहे बात यूँ उर्मि लखन तैयार हुए पहले सबसे खिले हो कोई कमल जैसे देखी ज्यो सूर्य की पहली किरण राम के पास आया था लखन भैया अब तुम होगे राजा और मै हूँगा तेरी परजा तुम मेरे भाई हो तब तक नही बन जाते राजा जब तक जी भर के देखूँ बडा भाई बस यूँ ही मन मे आई फिर तो तुम परजा को देखोगे फिर मेरे भैया कहाँ रहोगे ऐसे लखन यूँ ही बोलता जाता मन की खुशी राम को जतलाता पर यह क्या? तुम यूँ ही खडे हुए अभी तक क्यो नही तैयार हुए श्

मानस की पीडा-भाग 3.दुविधा मे दशरथ

मानस की पीडा तृत्तीय भाग मे दशरथ के मन मे कैकेयी द्वारा राम-वनवास का वर मांगने पर दुविधा का वर्णन है वो श्री राम के लिए सबकुछ त्यागने को तैयार है और श्री राम को कूट्नीति भीसिखाना चहते है परन्तु वन भेजने के पक्ष मे नही है दुविधा मे दशरथ सारे महलो मे कितने खुश पाये जो थे सब अनुपम सुख शिक्षा दीक्षा सब हुई पूरी इच्छा नही रही थी अधूरी चारो ही सुत थे ब्याहे गये दशरथ के सपने पूरे हुए कितनी प्यारी बहुएँ उनकी भोली है कितनी ही मन की गर्वित कितना राजा दशरथ जिसके चारो ऐसे थे सुत एक से बढकर गुणी एक और सबमे ही था विवेक सामने था भविश्य का आइना और दशरथ का यह कहना अब मुझमे शक्ति हुई कम बूढी हड्डियो मे नही दम जिसमे हो अवध राज्य का भला अब वही फैसला मै लेने चला यह सोच के गुरु को बुल्वाया दशरथ ने गुरु को बतलाया अब राम ही राज्य सँभालेगा वही अवध का अब राजा बनेगा मै और नही कर सकता काम मुझको भी चाहिये अब आराम जितनी जल्दी हो शुभ मुहूर्त देखूँ राम मे राजा की सूरत खुश होगी अवध की भी परजा मेरे सिर से उतरेगा कर्जा शुभ मुहूर्त भी निकलवाया अगला दिन शुभ यह बतलाया पर गुरु तो डर गया था मन मे क्यो राम दिखा मुझको वन मे मन

मानस की पीडा-द्वितीय भाग राम-स्तुति

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मानस की पीडा के द्वितीय भाग राम-स्तुति मे तुलसी दास जी द्वारा पत्नी की धिक्कार खा कर घर त्याग कर श्री राम चरणो मे समर्पण कर देने पर प्रार्थना की गई है इसके उपरान्त तुलसी दास पूरी तरह से राममय हुए और महान ग्रन्थों की रचना कर डाली राम स्तुति जय राम राम श्री राम जग मे पावन इक तेरा नाम इससे तो तर जाते प्रस्तर तेरे नाम से हो जाते है अमर हे जगत पिता हे रघुनन्दन कातो अब मेरे भी बन्धन रघुकुल के सूर्य राजा राम लज्जित तुम्हे देख करोडो काम कौशल नन्दन हे सीता पति तेरे नाम मे है अद्भुत शक्ति तू सुख सम्रिधि का दाता तुम जगत पिता सिया जग माता तुझ सन्ग शोभित है सिया लखन अर्पण तुझ पर अब यह जीवन इस जीवन का उद्धार करो मुझे भव सागर से पार करो साथ मे पवन पुत्र हनुमान अनुपम झाङ्की को मन मे जान हम करते है तेरा वन्दन आकर दर्शन दो रघुनन्दन हे सरल शान्त कौशल नन्दन हम बाँस है और तू है चन्दन हम पातक , तू पातक हर्ता हे भाग्य विधाता सुख करता इस जीवन का उधार करो सब कष्ट हरो सब कष्ट हरो .................. .................. यूँ राम की करते हुए विनय तुलसी तो हो ही गया राममय नही सूझे कुछ श्री राम बिना बिन राम के जीना भी