सोमवार, 22 मार्च 2010

मानस की पीड़ा - 8. शत्रुघ्न सन्ताप

गये वन को राम लखन सीता
और छोड़ गए है प्यारे पिता

यह देख दुखित है शत्रुघ्न
पीड़ा से भरा था उसका मन

सर रख के वह माँ की गोदी
और सुध-बुध सारी ही खो दी

आँखों से तो आँसू बहते
चिल्ला चिल्ला कर यूं कहते

भाई के बिन मैं न रहूंगा
दुख पिता का भी कैसे सहूंगा ?

नहीं यह सब मैं सह सकता माँ
वापिस भाई को बुला लो ना

मैं पिता वियोग भूलाऊंगा
जो राम सा भाई पाऊंगा

मुझे प्यार पिता के समान दिया
नहीं दिल से कभी जुदा किया

जो मैं नहीं जाता भरत के साथ
तो नहीं आती यह काली रात

क्या राम ने मुझको याद किया
जब वन जाने का वचन दिया

जाना था तो मिलकर जाते
हम को भी तो कुछ बतलाते

क्यों किसी ने हमें बताया नहीं
और उनके मन में भी आया नहीं

नहीं थे हम दोनों ही घर
और वो घर से हो रहे बेघर

काश ! हमें वे मिल लेते
उन्हें कभी न यूँ जाने देते

क्यों वाम हुआ यूँ विधाता
ऐसी तो न थी भरत-माता

क्या उसका प्यार सब झूठा था
सच्च में उसका मन खोटा था

नहीं भाभी ऊर्मि देखी जाती
नहीं वो भी किसी से बतियाती

बड़ी माँ के आँसू नहीं सूखते
लगातार ही हैं बहते रहते

दोनों भाई तो रहते हैं वन
पर बैठा महल में शत्रुघ्न

यह महल भी खाने को आते
अब नहीं ये मन मेरे भाते

माँ मैंने भी सोचा मन में
मैं भी अब जाऊंगा वन में

जा के भैया के संग रहूंगा
और उन सबकी सेवा करूँगा

सारे कष्टों को सह लूंगा
उनके संग जीवन जी लूंगा

मुझको भी माँ दे दो आज्ञा
और खुशी से मुझे भी करो विदा

नहीं पुत्र नहीं तुम जाओगे
तुम यहीं महलों में ही रहोगे

राज्य की पूरी जिम्मेदारी
आ गई तेरे सिर पर भारी

राम लखन अब है वन में
कितना है दुखित भरत मन में

नहीं राज काज में मन लगता
वह तो बस रोता ही रहता

राम की सेवा में है लखन
भरत के लिए है शत्रुघ्न

नहीं अकेला रहेगा भरत
सेवा में रहेंगे दोनों ही सुत

तुम अपना फर्ज निभाओगे
सेवा में भरत की जाओगे

देखो टूट न जाए भरत
आज उसको तेरी जरूरत

यूँ माँ ने सुत को समझाया
रिपुदमन को समझ में अब आया

घर में वह सबको सँभालेगा
इन कष्टों से न डोलेगा

मन ही मन में रोता रहता
और फर्ज सभी पूरे करता

देखता सारा राज्य का काम
नहीं तनिक भी था मन में विश्राम

पाल रहा माँ का आदेश
इच्छा नहीं कोई मन में शेष

बस माँ की आज्ञा का पालन
करने में ही हो गया मग्न

दूत राम के पास भिजवाता
हाल-चाल सब पुछवाता

भाई भरत को जा देता धीरज
मस्तक पे लगाता चरण रज

पास माताओं के जाता
अहसास उन्हें यह करवाता

नहीं अकेली है माताएँ
हैं पास में उनके सुत जाए

कितना बन गया वो जिम्मेदार
दी अपनी सारी खुशी मार

घर में रहकर पत्नी से दूर
कितना था शत्रुघ्न मजबूर

हृदय में लिए हरदम पीड़ा
उठाया था सबका बीड़ा

कहती थी उससे यह ऊर्मिला
भाग्य से तुझसा भाई मिला

नहीं तुमको कोई अपनी सुध-बुध
कितना सरल और कितना ही शुद्ध

आयु छोटी बुद्धि में बड़ा
रघुकुल का एक है थम्ब खड़ा

सबसे छोटा रघुकुल वीर
नहीं होना तुम कभी अधीर

बचेगी तुझसे ही मर्यादा
यही रखना मन में इरादा

तुम जैसे जहां कुल के रक्षक
वहां नहीं बन सकता कोई भक्षक

चौदह वर्ष तो बहुत कम है
कुल के लिए अर्पण जीवन है

नहीं तुम मन में कभी घबराना
दुविधा हो तो मुझको बतलाना

तेरे भाई की जगह न ले सकती
पर सहायक अवश्य बन सकती

समझाती कभी माँ कभी भाभी
वह नहीं बच्चा है रहा अभी

शत्रुघ्न सब समझता बात
न देखे वो दिन और न रात

फर्ज उसने हर निभाया
और हर जन को यह बतलाया

भाई से बड़ा न कोई राज
माता - पिता है सर्वोत्तम ताज

कष्टों से कभी नहीं डरना
करम के लिए बेशक मरना

मन में चाहे कितना सन्ताप
पर रुक जाना भी तो है पाप

सब के लिए है चलते रहना
जैसे भी कष्टों को सहना

करम की गति बड़ी बलवान
चलो पथ पर उसको पहचान
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